प्रथम विश्व युद्ध के सौ साल पूरे होने पर इसके ऑस्ट्रेलियाई, कनाडाई, दक्षिण अफ़्रीकी और न्यूज़ीलैंड के सैनिकों के योगदान पर काफ़ी कुछ कहा सुना गया। उनकी याद में कार्यक्रम हुए, किताबें प्रकाशित हुईं, फ़िल्में बनीं, लोगों ने कई तरह से याद किया और श्रद्धांजलि दी गईं।
पर इसी युद्ध में भाग लेने वाले तक़रीबन 13 लाख भारतीय सैनिकों की काफ़ी कम चर्चा हुई। इसमें 74,187 भारतीय सैनिक मारे गए और इसी अनुपात में वे ज़ख़्मी भी हुए। उनकी बहादुरी की कहानियां मानो भुला ही दी गईं।
अर्सला ख़ान
1914 से 1918 तक भारतीय सैन्य टुकड़ियां युद्ध में शामिल हुईं. भारतीय सैनिकों की संख्या ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और कैरेबियन की सेना के कुल योग से भी चार गुना थी.
57वीं वाइल्ड्स राइफ़ल्स के अर्सला ख़ान पहले विश्व युद्ध के लिए जाने वाले पहले भारतीय थे.
वह 22 अक्टूबर 1914 की रात पश्चिमी मोर्चे पर बेल्जियम में प्रवेश करने वाली पहली भारतीय कंपनी के अगुवा थे.
अर्सला ख़ान 1918 तक फ्रांस, मिस्र, जर्मन ईस्ट अफ्रीका और भारत में लड़ाइयां लड़ते रहे. 1919 की गर्मियों में लंदन में हुई आधिकारिक विजय परेड में उन्होंने अपनी रेजीमेंट का प्रतिनिधित्व किया.
हज़ारों अन्य युद्धवीरों के साथ उन्होंने शहर के महानतम युद्ध स्मारक द सेनोटाफ तक मार्च किया और देखने वाली कई आंखें आंसुओं से भीग गईं
अमर सिंह
विश्वयुद्ध के बारे में कई आख्यान, लेख और किताबें मशहूर हैं, लेकिन एक लेखक भारतीय सेना में भी था जिसने संभवत: एक असाधारण चीज़ लिखी. कैप्टन अमर सिंह ने जो लिखा वह संभवत: दुनिया की सबसे लंबी डायरी होगी.
1890 के दशक से लेकर 1940 के दशक तक 89 संस्करणों में उन्होंने युद्ध में अपने अनुभव दर्ज किए. इसमें भारत से लेकर पश्चिमी मोर्चे, ब्रिटेन, इराक़ मोर्चे और भूमध्यसागर में जर्मन यू-बोट्स से जूझने के तजुर्बे शामिल हैं.
1917 में सिंह की पत्नी रसल ने राजस्थान स्थित अपने घर में बेटी रतन को जन्म दिया. वह इस दंपती की छठी और पहली ऐसी संतान थी जो पूरी तरह स्वस्थ पैदा हुई थी. यहां से अमर सिंह के परिवार को लगा कि युद्ध वाक़ई ख़त्म हो गया है और अब उनके परिवार के लिए ख़ुशियों के दिन हैं.
भारतीय सैनिकों को नहीं मिली जगह:
भारतीय सैनिकों ने यूरोप, भूमध्य सागर के इलाक़ों, मसोपोटामिया, उत्तरी अफ़्रीका और पूर्व अफ़्रीका के देशों में लड़ाइयां लड़ीं। यूरोप में तो खाइयों में लड़ते हुए मौत को गले लगने वाले पहले सैनिकों में उनका नाम था।
बड़ी तादाद में भारतीय सैनिक युद्ध के पहले ही साल मारे गए। जर्मनी का ज़ोरदार हमला तो दूसरे साल शुरु हुआ। जिस समय ब्रिटेन में सैनिकों की भर्ती ही की जा रही थी, भारतीय सैनिकों ने 1914 में ईप्रस में जर्मनी के बढ़ते हुए क़दमों को बहादुरी से रोका था। नोव चैपल की बेकार गई लड़ाई में वे बड़ी बहादुरी से लड़े। गैलीपोली की लड़ाई में 1,000 से ज़्यादा भारतीय सैनिक खेत रहे।
अपनों से दूर:
first world war and indian soldiers
मेसोपोटामिया में ऑटोमान साम्राज्य के ख़िलाफ़ सात लाख भारतीयों ने अपनी सेवाएं दीं। इनमें भारतीय मुसलमान भी थे, जिन्होंने इस्लाम मानने वालों के ही ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों के लिए युद्ध किया।
सबसे दुखद स्थिति यूरोप की खाइयों में लड़ने वाले भारतीय सैनिकों की थी। अपने परिजनों को लिखी उनकी चिट्ठियों से पता चलता है कि वे किस तरह बिल्कुल दूसरे मुल्क, वातावरण और संस्कृति में रहते हुए लड़ रहे थे। उनमें से एक ने लिखा था, “लाशें ऐसे गिर रही हैं जैसे फ़सल कटने के समय भूसा गिरता है।”
प्रथम विश्व युद्ध शुरु हुआ तो ब्रिटेन ने घोषणा की थी कि यदि भारतीयों ने साथ दिया तो वह देश को आज़ाद कर देगा। हज़ारों भारतीय सैनिकों के जान गंवाने और दूसरे लोगों के हर तरह से सहयोग के बावजूद अंग्रेजों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया।
वादा नहीं निभाया अंग्रेजों ने:
अंग्रेजों ने देश को आज़ाद करने के बदले रॉलेट एक्ट लागू कर दिया, जिसका विरोध हुआ। इसका नतीजा जालियां वाला बाग हत्याकांड के रूप में सामने आया।
निहत्थों पर की गई इस एक दिन की कार्रवाई में 1,499 लोग मारे गए और 1,137 ज़ख़्मी हुए। आज यह माना जा रहा है कि इन सैनिकों ने औपनिवेशिक ताक़तों के लिए लड़ाई लड़ी थी, यह लड़ाई उनकी अपनी नहीं थी। इसमें जान गंवाना महज़ इस पेशे से जुड़ा ख़तरा था।
क्या है इंडिया गेट?
इसलिए भारत में अपने ही सैनिकों की बहादुरी को भुला दिया गया। प्रथम विश्व युद्ध की 50वीं सालगिरह पर जब 1964 में आयोजन हुआ, कहीं किसी ने भारतीय सैनिकों का नाम तक नहीं लिया।
अंग्रेज सरकार ने दिल्ली में भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक स्मारक बनवाया, यह है इंडिया गेट। यह 1931 में बन कर पूरा हुआ। इसे देखने हज़ारों लोग रोज़ाना यहां आते हैं। पर शायद ही किसी को पता हो कि यह प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए भारतीय सैनिकों की याद में बनाया गया था।
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