आप सब के कुशल क्षेम की कामना करते हुये इस पोस्ट के जरिये हम चाणक्य नीति का काव्यानुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। उम्मीद है की काव्यनुवाद भी आप सब को उतना ही पसंद आएगा।
परिचय
यह पुस्तक " चाणक्य नीति , काव्यानुवाद " महर्षि चाणक्य रचित " कौटिल्य अर्थशास्त्र " से लिया गया " चाणक्य नीति " पुस्तक का हिंदी में सरल और सटीक काव्यानुवाद है । सरल कविता में होने से इसे याद रखना सहज होगा ,क्योंकि गद्य याद रखने से पद्य याद रखना सरल होता है । इसके अलावां यह गेय भी है।
इसमें १७ अध्याय है जो ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म , जीवन शैली , आचार-विचार , कर्तव्य-अकर्तव्य , सफलता-असफलता , नीति , कुटनीति , राजनीति आदि पर प्रकाश डालता है। जैसे--
जहां निरादर , न जीविका हो ,
न लाभ विद्या ,न भाई बंधु ।
वहां कदापि क्षण नहीं रहना ,
रहना नहीं जन , रहना नहीं तू ।। अध्याय - १ से ।।
जो निश्चित को छोड़ जगत में ,
अनिश्चित की ओर है जाता ।
निश्चित बन जाता अनिश्चित ,
अनिश्चित कब का है निश्चित ।। अ. १ से ।।
बिगाड़े परोक्ष जो बंदा कर्म को ,
सुनाए प्रत्यक्ष वह मीठे वचन को ।
तजो ऐसी यारी विष अंदर भरा हो ,
घड़ा मुख पर जैसे अमृत धरा हो।। अ. २ से ।।
दुर्जन सर्प में चुनो सर्प को ,
काटे सर्प काल के आने पर ।
चुनो न दुर्जन , दुर्जन नहीं जन ,
दुर्जन डसता हर पग पग पर ।। अ. ३ से ।।
पर अधिकार से धन छिन जाता ,
आलस से नहीं विद्या आती ।
कमी बीज की नाशे खेती ,
बिन नायक सेना मर जाती ।। अ. ५ से ।।
जहां धन है मित्र बहुत हैं ,
बहुत हैं बंधु धनी अगर जन ।
जो है धनी कहाये पंडित,
श्रेष्ठ गिनाए जिसको है धन ।। अ. ८ से ।।
धनहीन नहीं कहाये निर्धन ,
विद्याहीन सदा ही निर्धन ।
धनहीन निर्धन नहीं गिनाता ,
विद्याहीन जनों में निर्जन ।। अ. १० से ।।
न साधुता आती दुर्जन में ,
शिक्षण दो कितना ही भांति ।
सींचों पय से अथवा घी से ,
नीम न पाये मधु की पांती ।। अ. ११ से ।।
राजा धर्मी प्रजा धर्मी ,
पापी राजा प्रजा हो पापी ।
राजा सम तो प्रजा सम हो ,
राजा गुण अपनाती प्रजा ।
अत: राजा से बनती प्रजा ,
जैसा राजा वैसी प्रजा ।। अ. १३ से ।।
दूर न दूरी करती उसको,
जो बसता है मन के अंदर ।
निकट नहीं भी निकट के वासी ,
गर मन उससे करता अंतर ।। अ. १४ से ।।
मीठे वचन संतुष्टि है जन की ,
बोलो इसे क्या कमी है वचन की ।। अ. १६ से ।।
निर्बल जन साधु बनता है ,
निर्धन बनता है ब्रह्मचारी ।
दुखी देव भक्त बनता है ,
पतिव्रता बने बूढ़ी नारी ।। अ. १७ से ।।
अगर ज्ञानी जनों को मेरा यह तुच्छ प्रयास पसंद आये तो मेरा मेहनत और जीवन सार्थक हो जाय । त्रुटियों के लिए क्षमापार्थी हूं । ज्ञानी और पाठक जनों से सुझाव सादर आमंत्रित है ।
धन्यवाद
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